काल-तिलक का रहस्य – अध्याय 02
इक्यावन अंग, एक जन्म: कल्कि अवतार से पहले की गुप्त कथा
"नैमिषारण्य की रहस्यमयी रात में गूँजी आकाशवाणी! क्या अश्वत्थामा अपना शाप बदल पाएंगे? क्या भगवान परशुराम माता सती के अंगों को सुरक्षित कर कल्कि अवतार के जन्म का मार्ग प्रशस्त करेंगे? पढ़िए एक अद्भुत पौराणिक यात्रा जहाँ शक्ति, प्रतिशोध और भविष्य के अवतार का मिलन होता है।"
मरुस्थल की धूल में भटकते अश्वत्थामा के सामने जब काल-तिलक का चिह्न प्रकट हुआ, तो उसे अपनी मुक्ति का मार्ग दिखा। काल-द्वार के भीतर उसने अपने ही पुराने क्रोधित रूप का सामना किया।
संवाद का सार: "तू क्रोध है, और मैं तेरा परिणाम," वृद्ध अश्वत्थामा ने अपने युवा स्वरूप से कहा। जब पश्चाताप ने प्रतिशोध को गले लगाया, तो अश्वत्थामा की लाल मणि सुनहरी आभा में बदल गई। वह अब केवल एक शापित व्यक्ति नहीं, बल्कि पूर्ण 'द्रोणपुत्र' बनकर उभरा।
पर्वतों के प्रहरी भगवान परशुराम ने जब अश्वत्थामा की परीक्षा ली, तो उन्हें आभास हुआ कि शक्ति से बड़ी बुद्धि और स्थिरता है। काल-तिलक उन्हें समय के पीछे कुरुक्षेत्र के युद्ध में ले गया।
वहां परशुराम ने अपनी आँखों से अपने प्रिय शिष्य कर्ण का अंत देखा। उन्होंने देखा कि कैसे उनके एक शाप ने श्रेष्ठ धनुर्धर को असहाय कर दिया।
गुरु का पश्चाताप: परशुराम की आँखों से निकले आँसू और कर्ण की क्षमा ने गुरु के हृदय का बोझ हल्का कर दिया।
नई शक्ति: कर्ण के अंतिम शब्दों—"मेरी मृत्यु ही मेरी गुरुदक्षिणा है"—ने परशुराम को एक नई दिव्य ऊर्जा से भर दिया।
आर्यमंत्र दोनों को—उनकी पूर्ण शक्तियों के साथ—एक साथ देख भीतर से आनंदित था। यह कोई साधारण मिलन नहीं था, यह समय के चक्र का संतुलन था। अब वे तीनों प्रतीक्षा में थे… कि अगला कौन होगा जो इस मौन को तोड़ेगा। परशुराम को पुनः उनके काल से जोड़ते ही काल-तिलक शांत हो चुका था। वह उथल-पुथल, जो युगों से भीतर दबी थी, कुछ पल के लिए थम गई। आर्यमंत्र ने दोनों को भोजन का आमंत्रण दिया। भोजन पर सामान्य सी बातें हुईं— पर उन शब्दों के बीच भी एक अनकहा भय बैठा था। फिर सब विश्राम के लिए अपने-अपने स्थान को चले गए।
रात गहरी थी। जब संसार निद्रा में था, तब आर्यमंत्र के भीतर कोई और जाग उठा। स्वप्न में… उसने देखा—इक्यावन शक्ति-पीठ। पर वे वैसे नहीं थे जैसे ग्रंथों में वर्णित हैं। हर पीठ पर कुछ घट रहा था— कुछ छिपा हुआ, कुछ विकृत… जैसे कोई अदृश्य शक्ति उन्हें भीतर से छेड़ रही हो।
अचानक— एक बच्चे की किलकारी। वह हँसी नहीं थी… वह नियति की पुकार थी। एक भेड़िया उस बच्चे को दाँतों में दबाए लिए जा रहा था— ना क्रूरता, ना करुणा— बस आदेश का निर्वहन। भेड़िया बच्चे को एक स्थान पर छोड़ देता है।
वहाँ— सफेद साड़ी में लिपटी एक वृद्ध स्त्री हवन कर रही थी। अग्नि की लपटें असामान्य थीं— वे ऊपर नहीं, भीतर की ओर जल रही थीं। स्त्री का चेहरा… दिखाई नहीं देता। उसके समीप एक अत्यंत वृद्ध ऋषि बैठा था— वह मंत्रोच्चार नहीं कर रहा था, वह जैसे किसी प्राचीन नियम को दोहरा रहा हो। आर्यमंत्र उस स्थान को पहचानने का प्रयास करता है— भूमि, दिशा, ऊर्जा— सब पकड़ में आने ही वाले थे… तभी— वृद्ध ऋषि की दृष्टि सीधे आर्यमंत्र पर पड़ती है। क्षण भर में— ऋषि अपनी भुजा उठाता है और भभूत आर्यमंत्र की ओर फेंक देता है। दृष्टि जल जाती है। स्वप्न बिखर जाता है।
आर्यमंत्र की आँख खुल जाती है। हृदय की धड़कन असामान्य थी। यह कोई साधारण सपना नहीं था। यह चेतावनी थी… या किसी जन्म की शुरुआत?
इक्यावन शक्ति-पीठ…
बच्चा…
भेड़िया…
अग्नि…
और वह छुपा हुआ चेहरा— कुछ तो आरंभ हो चुका था। और शायद… उसे रोका नहीं जा सकता था। आर्यमंत्र की नींद पूरी तरह खुल चुकी थी, पर मन अब भी उसी स्वप्न की राख में उलझा हुआ था। अचानक— सामने परशुराम खड़े थे। क्षण भर को आर्यमंत्र का हृदय काँप उठा। पर अगले ही पल, उस तपस्वी योद्धा को देख साँसें फिर से नियंत्रण में आ गईं।
आर्यमंत्र ने संयत स्वर में कहा— “आप यहाँ…? कुछ चाहिए था तो मुझे बुला लेते।”
परशुराम की आँखें स्थिर थीं— पर उनमें प्रश्नों की ज्वाला जल रही थी। उन्होंने धीमे स्वर में कहा—
“तुम्हारा चित्त अशांत है, आर्यमंत्र। नींद से जागे हो… पर आत्मा अब भी कहीं और भटक रही है।”
आर्यमंत्र कुछ कह पाते— उससे पहले ही— पदचाप। छाया से एक और आकृति उभरी। अश्वत्थामा। उसकी उपस्थिति के साथ ही वातावरण भारी हो गया— जैसे समय स्वयं एक कदम पीछे हट गया हो। अश्वत्थामा ने सीधे आर्यमंत्र की ओर देखा। उस दृष्टि में न क्रोध था, न करुणा— केवल पहचान थी। “तुमने भी देखा है…”
उसने कहा। “है ना?”
आर्यमंत्र चौंक गया। “क्या देखा?”
अश्वत्थामा ने उत्तर नहीं दिया। वह मुड़ा— और आकाश की ओर देखने लगा। परशुराम ने दोनों के बीच खड़े होकर कहा— “स्वप्न नहीं थे वे। स्वप्न चेतावनी नहीं देते… वे केवल द्वार खोलते हैं।”




