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काल-तिलक का रहस्य – अध्याय 01 | प्राचीन दिव्य यंत्र और रहस्यमयी कथा की शुरुआत

काल-तिलक का रहस्य

alt="काल-तिलक का रहस्य अध्याय 01 – परशुराम, अश्वत्थामा और दिव्य यंत्र की रहस्यमयी कहानी"

अध्याय - ०१ 

हजारों वर्षों से नैमिषारण्य के मध्य स्थित काल-तिलक—एक दिव्य यंत्र—समय और धर्म के संतुलन की रक्षा करता आया था। कहा जाता है कि जब भी संसार किसी ऐसे संकट की ओर बढ़ता है जिसके आगे देवता भी असहाय हो जाएँ, तब काल-तिलक स्वयं एक संकेत भेजता है।

उस रात…
आकाश में एक नीली चिंगारी फूटी। धरती हल्का-सा काँपी, और काल-तिलक की सतह पर एक नया प्रतीक उभर आया—
“सप्त-अमर को एकत्र करो।”

नैमिषारण्य के रक्षक ऋषि आर्यमंत्र ने यह संकेत देखा और चौंक गए। सदियों से ऐसा कोई संदेश नहीं आया था।

“यदि काल-तिलक स्वयं जाग उठा है… तो अवश्य ही कोई ऐसा अंधकार जन्म ले चुका है जो अकेले किसी एक देव, एक योद्धा या एक चिरंजीवी से नहीं रुकेगा,” वे बुदबुदाए।

लेकिन समस्या यह थी—
सातों चिरंजीवी सात दिशाओं में बिखरे हुए थे और अपने-अपने कारणों से संसार से लगभग दूर हो चुके थे।

इतने में एक जोरदार उद्घोष हुआ—

alt="काल-तिलक का रहस्य अध्याय 01 – परशुराम, अश्वत्थामा और दिव्य यंत्र की रहस्यमयी कहानी"

अश्वत्थामा

जिसने निहत्थे और अजन्मे शिशु (परीक्षित) को मारने हेतु ब्रह्मशिर नामक अस्त्र का प्रयोग किया था। इस अपराध के कारण श्रीकृष्ण ने उसके माथे की मणि छीन ली और उस घाव को कभी न भरने का शाप दिया। अमरता के साथ पीड़ा मिली—और वह आज भी दुनिया के कोने-कोने में अपनी मृत्यु की खोज में भटक रहा है।

विभीषण

जिन्होंने स्वयं को सदा धर्म और आध्यात्म की राह पर रखने का प्रण लिया था और जिन्हें ब्रह्माजी से अमरता का वरदान प्राप्त था। वे आज लंका के धर्मगुरु हैं और समुद्रपार एकांत में राज्य कर रहे हैं।

हनुमान

राम भक्त श्री हनुमान, जिन्हें प्रभु श्रीराम और माता सीता ने उनकी भक्ति से प्रसन्न होकर कलियुग के अंत तक जीवित रहने का वरदान दिया। वे समय-समय पर मनुष्य-रूप में प्रकट होकर लोगों को संकटों से बचाते हैं और फिर अंतर्ध्यान हो जाते हैं।

कृपाचार्य

अंतिम जीवित कौरव गुरु। उन्हें कृष्ण ने उनकी तपस्या और निष्पक्ष स्वभाव के कारण अमरता का वरदान दिया था। वे आज हिमालय की किसी गुप्त गुफा में तप में लीन हैं।

परशुराम

कालजयी योद्धा, जिन्हें भगवान शिव ने स्वयं चिरंजीवी होने का वरदान दिया। यह वरदान उन्हें रुद्रांश के रूप में प्राप्त हुआ। आज वे एकांत पर्वतों के बीच साधना में लीन हैं।

राजा बलि

पाताललोक के सम्राट और राक्षसराज। वे भगवान विष्णु के वामन अवतार के संरक्षण में शासन करते हैं और केवल ओणम के दिन ही पृथ्वी पर अपनी प्रजा से मिलने आते हैं।

व्यास

वेदों के कर्ता। उनके आश्रम का स्थान केवल योग्य लोगों को ही ज्ञात है। इतने ज्ञानी कि उनसे स्वयं ब्रह्माजी भी विमर्श करते हैं।

काल-तिलक के भीतर से निकलता प्रकाश एक गोलाकार दर्पण बन गया। उसमें एक झलक दिखाई दी— एक अंधकारमय छाया, जो नगरों की जीवन-ऊर्जा सोख रही थी। मनुष्यों को पता भी नहीं चल रहा था कि उनके बीच कोई अदृश्य विनाशक घूम रहा है।

ऋषि आर्यमंत्र ने निर्णय लिया— अब सातों चिरंजीवियों को एक साथ लाना ही होगा।

लेकिन उन्हें पता था कि यह आसान नहीं होगा… हर चिरंजीवी के पास अपनी कसक, अपना शाप, अपनी प्रतिज्ञा और अपना अहंकार है।

उन्होंने काल-तिलक पर हाथ रखा और मंत्र पढ़ा—

“अमर सप्त, धर्म की पुकार सुनो। समय स्वयं तुम्हें बुला रहा है।”

नीली लपटें आकाश में उठीं, और सात दिशाओं में सात दिव्य चिह्न उड़ते हुए निकल पड़े— हर चिरंजीवी तक पहुँचने के लिए।

  • पहला अमर योद्धा— अश्वत्थामा (एक शाप का यात्री) 

मरुस्थल की रात का अँधेरा अजीब था। आकाश में तारे थे, पर उनमें चमक नहीं थी—जैसे समय भी इस भूमि से थक चुका हो।

एक टूटी हुई हवेली के खंडहरों में एक विशाल आकृति धीरे-धीरे चल रही थी। कदम भारी… साँसें टूटी हुई…और माथे पर वही घाव— जो कभी नहीं भरता।

अश्वत्थामा.....

सदियों से भटकता हुआ, अपने किए अपराध का भार ढोता हुआ, और हर रात बस एक ही प्रश्न दिल में धधकता— “मार डालो मुझे… पर कोई मारता क्यों नहीं?”

वह कभी-कभी मनुष्यों के बीच आता भी था, लेकिन लोग उसे देखते ही डर से पीछे हट जाते। कई ने उसे पत्थर मारा, कई ने भगा दिया— पर किसी ने यह नहीं जाना कि वह जो खड़ा था। वह योद्धा कभी देवताओं को चुनौती देता था।

उस रात, मरुस्थल की नीरवता टूट गई। अचानक—आकाश नीला हुआ। एक तीव्र प्रकाश-रेखा उसके सामने गिरी।रेत तूफान की तरह उड़ी और उस प्रकाश में एक चिह्न आकार लेने लगा— "काल-तिलक का चिह्न।"

अश्वत्थामा ठिठक गया। उसकी लाल, थकी हुई आँखों में सदियों बाद पहली बार विस्मय उभरा।

“यह… यह शक्ति मैं पहचानता हूँ,” वह बुदबुदाया। 

कल्पना करो—वही अश्वत्थामा जिसने युद्धक्षेत्र में कोई भय नहीं जाना, आज एक दिव्य संकेत को सशंकित नज़रों से देख रहा था।

 चिह्न ने उसके सामने एक दृश्य दिखाया—

एक शहर… जहाँ लोग चल रहे थे पर उनकी परछाइयाँ थरथरा रही थीं। फिर एक काली आकृति— धुंध से बनी, बिना चेहरे की… जो एक-एक व्यक्ति के पास से गुजर रही थी और उनके शरीर का प्रकाश बुझता जा रहा था। मानवों को कुछ पता नहीं चलता— पर उनकी जीवन-ऊर्जा धीरे-धीरे गायब हो रही थी। अश्वत्थामा की मुट्ठियाँ कस गईं। “यह कौन-सी मायावी शक्ति है… जो जीवन को बिना युद्ध, बिना शस्त्र के चूस रही है?”

फिर चिह्न ने दूसरा दृश्य दिखाया—

ऋषि आर्यमंत्र काल-तिलक के सामने खड़े मंत्र पढ़ रहे थे। और उनकी आवाज अश्वत्थामा के कानों में गूंजी—

“अमर सप्त, धर्म की पुकार सुनो।”

अश्वत्थामा कुछ क्षण खामोश रहा। फिर उसने अपना क्षत-विक्षत माथा छुआ— जहाँ कभी दिव्य मणि थी। “क्या यह पुकार मुझे मुक्ति देने आए है… या फिर एक नया दंड?” लेकिन उसकी आँखों में एक पुरानी योद्धा-ज्योति लौट आई। “यदि यह अंधकार सच में समस्त जगत को निगल रहा है… तो उसे रोकने की शक्ति मुझमें अब भी बची है।” अश्वत्थामा ने धीरे से कहा— “मैं आ रहा हूँ… चाहे यह मेरे लिए श्राप बने या नया भाग्य।”

प्रकाश का चिह्न उसके चारों ओर घूमने लगा। रेत तूफ़ानी चक्र में बदल गई। और अगले ही क्षण— अश्वत्थामा मरुस्थल से गायब था। वह समय की पुकार का अनुसरण करते हुए पहली सभा की ओर निकल चुका था।

  • दुसरा अमर योद्धा— परशुराम (पर्वतों का गुमनाम योद्धा) 

पूर्व दिशा के दंतकथाओं जैसे पर्वत… जहाँ बादल भी घुटनों के बराबर झुककर गुजरते थे, जहाँ हवा उतनी ही तेज थी जितना किसी देव-योद्धा का श्वास, वहीं एक प्राचीन चोटी थी— ऋषि -द्रोणागिरी 

कहते हैं, यहाँ सदियों से एक गुमनाम योद्धा निवास करता है। कोई नहीं जानता उसका नाम, कोई नहीं जानता उसकी आयु, और जिसने भी उसे देखा… उसने केवल यह कहा— “उसकी आँखों में युद्ध की आग है, पर उसकी आत्मा में किसी प्राचीन अपराध का बोझ।”

उस दिन चोटी पर हवा असामान्य थी। नीले रंग की एक जगमगाहट दूर-दूर तक फैल रही थी।

गुमनाम योद्धा— लंबे जटाएँ, साधारण वस्त्र, और एक विशाल, प्राचीन कुल्हाड़ा जिसे देखकर ही मन काँप उठे—
शिला पर वार कर रहा था। हर वार से बिजली-सी चमक निकलती, जैसे पत्थर नहीं, समय को काटा जा रहा हो।

अचानक आकाश में नीली चिंगारी फूटी और उस योद्धा के ऊपर गिरने लगी। 

योद्धा ने कुल्हाड़ा से रोक लिया। पहाड़ शांत हो गया—जैसे किसी ने उसकी श्वास रोक दी हो। नीला चिह्न धीरे से उसके सामने उतरा। वह एक क्षण भी नहीं चौंका। बस हल्की-सी मुस्कान आई— एक ऐसी मुस्कान, जो केवल वही दे सकते हैं जो देवों और दैत्यों दोनों के युग देख चुके हों। पर उसकी पहचान अभी भी… एक रहस्य है।

चिह्न ने दृश्य दिखाया—

काली छाया से घिरे नगर, जहाँ मनुष्य चलते तो हैं, पर उनकी आत्मा बुझती जा रही है। गुमनाम योद्धा ने ध्यान से देखा, कुल्हाड़े की पकड़ मजबूत हुई। “यह शक्ति… यह कोई साधारण मायावी नहीं,” उसने धीरे कहा, “यह उस युग की गंध है जब ऊँचे-ऊँचे देवता भी भय महसूस करते थे।”

फिर, चिह्न ने दूसरा दृश्य दिखाया

ऋषि आर्यमंत्र, काल-तिलक के सामने मंत्रोच्चार करते हुए। आवाज़ गूंज उठी—

“अमर सप्त, धर्म की पुकार सुनो।”

योद्धा ने अपनी आँखें बंद कर लीं। उसके मन में पुराने युद्धों की प्रतिध्वनि उठी— राजाओं के सिर, युगों की ज्वाला, शस्त्रों की तप्त प्रतिज्ञाएँ, और एक शाप… जिसका बोझ आज भी उसके कंधों पर था। “क्या फिर से समय मुझे बुला रहा है?”

उसने बुदबुदाया। “क्या फिर मुझे उस पथ पर चलना होगा जिसे मैंने पीछे छोड़ दिया था?” पहाड़ हिले— जैसे स्वयं पर्वत भी उसके निर्णय की प्रतीक्षा कर रहे हों। फिर योद्धा ने कुल्हाड़ा उठाया और आसमान की ओर देखा। उसके शब्द तेज थे, पर शांत— 

“यदि धर्म संकट में है, तो पहाड़ों का यह गुमनाम प्रहरी फिर से युद्धभूमि में उतरेगा।”

नीला चिह्न उसके चारों ओर घूमने लगा। पर्वत पर तेज़ प्रकाश उठा। पहाड़ की चोटी पर तूफ़ान बन गया। और अगले ही पल— वह योद्धा गायब हो चुका था। पर उसके जाते ही पर्वत ने जैसे राहत की साँस ली। क्योंकि हर पत्थर जानता था— वह गुमनाम योद्धा और कोई नहीं…महायोद्धा परशुराम था।

नैमिषारण्य की सीमाओं पर घने वन के बीच एक ऐसा स्थान था जहाँ सूर्य की किरणें भी प्रवेश करने से डरती थीं।

वहीं खड़ा था विशाल काल-तिलक— अब पूरी तरह सक्रिय, उसके चारों ओर नीला अग्नि-वर्तुल घूम रहा था। ऋषि आर्यमंत्र वहाँ प्रतीक्षा कर रहे थे। और कुछ ही क्षणों में— पहले अश्वत्थामा, फिर पर्वतों के गुमनाम योद्धा—परशुराम— उनके सामने प्रकट हुए। दोनों पौराणिक योद्धाओं को ऋषि आर्यमंत्र ने प्रणाम किया। तथा उनको इस तरह से वहाँ पर बुलाने के लिए खेद प्रकट किया। 

ऋषि आर्यमंत्र ने उन्हे सारी व्यथा कह सुनाई। सारी बातें सुनने के बाद परशुराम ने कहा "आपने हमे तो बुलाया परंतु काल के इस चक्र ने हमसे हमारे सारी शक्तियों का ज्ञान छिन लिया है। और इस अवस्था मे हम आपकी किसी भी प्रकार से युध कौशल मे मदद नहीं कर सकते। शारीरिक तौर पर भी हम अब इतने मजबूत और ताकतवर नहीं रहे।"

इसपर ऋषि आर्यमंत्र ने कहा "गुरुदेव मैं जानता हूँ इस लिए मैं आप दोनों को एक गुप्त पाषाण-द्वार के पास ले कर चलता हूँ। जहां से आप अपने जीवन के उस काल मे पहुंचेंगे जहां पर आपने वो गलती की जिसके पश्चाताप मे आप आज भी जल रहे है। द्वार स्वयं ही उस व्यक्ति को बुलाता है जिसे वो लायक समझता है" इसके पश्चात वो तीनों एक गुफा के भीतर एक विशालकाय द्वार के सामने खड़े हो गए। 

द्वार के खुलते ही आश्वत्थामा को एक विचित्र खिंचाव महसूस हुआ। मानो कोई अदृश्य हाथ उसे भीतर खींच रहा हो।
गुफ़ा का संसार अचानक धुंध में बदल गया—और वह एक काल-छिद्र, समय के प्रवाह से बाहर जा गिरा।

धुंध फटने लगी… सन्नाटा चीरता हुआ कुरुक्षेत्र फिर जीवित-सा उठने लगा—पर यह वह कुरुक्षेत्र नहीं था जिसे दुनिया जानती है। यह था स्मृतियों की भूमि, जहाँ समय स्वयं घावों को उभारता है। अश्वत्थामा ने देखा—लाल तिलक, अग्नि-सी आँखें, काँपता हुआ श्वास… वह उसके सामने खड़ा था—वह स्वयं। पुराना, उग्र, प्रतिशोध से भरा हुआ रूप।

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पुराना आश्वत्थामा (गरजते हुए) “दूर रहो! मुझसे जो भी जुड़ता है—जलता है। मेरा सब कुछ छीन लिया गया… अब क्या लेने आए हो?” उसके माथे की मणि लाल ज्वाला उगलने लगी। मानो क्रोध को भी भय हो रहा हो कि यह किस सीमा तक जा सकता है।

वृद्ध आश्वत्थामा (थका, धीमा, टूटता हुआ)  “मैं वो नहीं जो तुझे रोकने आया है… मैं तूम हीं है। वह रूप… जिसे तूने वर्षों में नर्क बनाकर खुद पर थोप दिया। तू क्रोध है… और मैं—तेरा परिणाम।” वृद्ध आश्वत्थामा ने अपने माथे पर लगे शाश्वत घाव को छुआ— वही घाव जिसे श्रीकृष्ण ने शापस्वरूप कभी भरने नहीं दिया था।

पुराना आश्वत्थामा (भभकते हुए): “परिणाम? परिणाम तो तब होता जब कोई पाप किया हो! मैंने क्या किया? जब मेरे पिताश्री को धोखे से मार दिया गया—तब किसी को धर्म याद नहीं आया! धर्मराज कहे जाने वाले युधिष्ठिर ने झूठ बोला! उन्होंने कहा ‘अश्वत्थामा मारा गया’, और मेरे पिता ने—मेरा गुरु, महान द्रोण— उसी क्षण निःशस्त्र होकर मरने को तैयार हो गए। फिर उन अधर्मियों ने मिलकर उनके गले पर वार किया। क्या ऐसे पापियों का वंश मिटाना पाप है? क्या यह न्याय नहीं?”  पुराने आश्वत्थामा के शब्द कुरुक्षेत्र की हवा को भी कंपा गए। उसकी मणि और अधिक लाल हो गई—मानो उसकी आत्मा फिर वही प्रतिशोध बनती जा रही हो।

वृद्ध आश्वत्थामा (आवाज़ भरभराती हुई): “तू सही था… यदि धर्म किसी मनुष्य से छीन लिया जाए, तो मनुष्य पशु  के समान हो जाता है। पर क्या तूने केवल उनका वंश मिटाया? नहीं… तूने स्वयं को जला डाला। जिस मासूम कोख में पल रहे बालक को तूने मारा… क्या तूने क्षण के लिए भी सोचा की क्या इससे तुम्हारी पीड़ा मिटेगी?

नहीं। इसने हमें अनंत पीड़ा दी— जो यहाँ (सिर पर घाव की ओर इशारा) कभी नहीं भरती।” वृद्ध आश्वत्थामा के शब्दों के साथ ठंडी हवा बहने लगी। कुरुक्षेत्र की धुंध जैसे रो रही थी।

पुराने आश्वत्थामा ने पहली बार अपने ही वृद्ध रूप की आँखों में देखा— वहाँ गुस्सा नहींदुःख था। असीम, अनंत दुःख। उसके भीतर कुछ टूट गया।

पुराना आश्वत्थामा (टूटी आवाज़ में): “क्या… क्या मैंने इतना बड़ा पाप किया? क्या मैं ही अपने पिता के धर्म का अंतिम कलंक बन गया?”

वृद्ध आश्वत्थामा: “तू पापी नहीं… परंतु तू भटका हुआ पुत्र है। तेरे भीतर द्रोण की वीरता है— पर तूने क्रोध को अपना राजगुरु बना लिया। अब समय है कि हम दोनों— तूम और मैं—एक हो जाएँ। क्योंकि जो होने वाला है, उसके लिए एक टूटा हुआ या एक क्रोधित आश्वत्थामा पर्याप्त नहीं। आवश्यक है—पूर्ण द्रोणपुत्र।”

अचानक लाल मणि सफेद प्रकाश उगलने लगी। वृद्ध आश्वत्थामा का क्षीण शरीर कंपा, पुराना आश्वत्थामा गरजकर पीछे हट गया— दोनों के बीच एक गोलाकार प्रकाश उठा— एक दर्पण, जो उन्हें अलग नहीं, एक दिखा रहा था।

मणि का संदेश (दिव्य स्वर): “जब तक क्रोध और पश्चाताप अलग रहेंगे— अमरता एक शाप है। जब वे मिलकर ज्ञान बनें— अमरता वरदान बन जाती है।” प्रकाश दोनों आश्वत्थामाओं को घेरने लगा— वृद्ध रूप का बोझ, दर्द, घाव… पुराने रूप का क्रोध, अग्नि, प्रतिशोध… सब प्रकाश में घुल गया। एक क्षण बाद— वहाँ एक ही आश्वत्थामा खड़ा था। उसी की काया पर यौवन की चमक, और आँखों में दर्द से जन्मी परिपक्वता। मणि अब लाल नहीं, शांत सुनहरी आभा में दमक रही थी।

उसने गहरी सांस ली। पहली बार… सदियों बाद… उसे लगा कि शरीर—उसका अपना है। आखिरकार।

“मैं… पूर्ण हूँ। अब जो भी अंधकार आ रहा है— उससे न क्रोध से लड़ूँगा… न पछतावे से। बल्कि उस धर्म से— जो मेरे पिता ने मुझे दिया था।”

कुरुक्षेत्र की धुंध छँटने लगी— जैसे समय स्वयं उसके आगे नत-मस्तक हो गया हो। यात्रा अब शुरू होने वाली थी। कुरुक्षेत्र की धुंध छँट चुकी थी। काल-तिलक का चमकता द्वार थरथराया, और आश्वत्थामा उसके आर-पार लौट आया— वह अब वह टूटा हुआ, अपराधबोध में डूबा अमर नहीं था। वह पूरी शक्ति, शांति और संयम का संगम बनकर उभरा था—पूर्ण द्रोणपुत्र।

ऋषि आर्यमंत्र और परशुराम वहाँ पहले से प्रतीक्षा कर रहे थे। जैसे ही आश्वत्थामा ने भूमि स्पर्श की, उसके कदम हल्के थे—पहली बार सदियों में। वह आगे बढ़ा और परशुराम के चरणों में झुक गया

आश्वत्थामा (गंभीर, विनीत): “गुरुदेव… मैं लौट आया हूँ। और इस बार सम्पूर्ण।” परशुराम ने उसके सिर पर हाथ रखा। पहली बार उनके चेहरे पर संतोष की महीन रेखा आई।

परशुराम: “तेरे भीतर अब न क्रोध की आग है, न पछतावे की राख। अच्छा है… क्योंकि आगे जो आने वाला है, उसमें अधूरे लोग टिक नहीं पाते।” 

ऋषि आर्यमंत्र ने मुस्कराकर सिर हिलाया— मानो समय की बड़ी शतरंज में पहली गोटी सही जगह लौट आई हो।परशुराम जैसे ही द्वार की ओर बढ़े— द्वार अचानक फट कर बुझ गई ज्योति की तरह अदृश्य हो गया। परशुराम वहीं रुक गए। उनके चेहरे पर आश्चर्य आया—और फिर वह बदलकर कड़कते प्रकोप में बदल गया।

परशुराम (गरजते हुए): “यह कैसा अनादर है!? काल-तिलक स्वयं मेरे सामने द्वार बंद करे? क्या समय भी अब अपने गुरु को चुनौती देने लगा है?” धरती हल्की कांप उठी। वन के पेड़ों पर पत्तियाँ थरथराईं। आश्वत्थामा और आर्यमंत्र दोनों जानते थे— परशुराम का क्रोध प्रकृति का क्रोध होता है। ऋषि आर्यमंत्र ने शांति से परशुराम को देखते हुए कहा—

ऋषि आर्यमंत्र: “भगवन, यह अनादर नहीं— यह संकेत है। काल-तिलक केवल उतना ही मार्ग खोलता है जितना आवश्यक हो। और लगता है कि अगला चिरंजीवी आपके लिए नहीं, आश्वत्थामा के लिए नियत है।” परशुराम की आँखों में अग्नि तैर रही थी, पर उनमें जिज्ञासा की एक धधक भी थी। परशुराम ने आसमान की ओर देखा। उनकी आवाज़ अब भी कठोर थी, पर संयमित।

परशुराम: “यदि काल-तिलक ने मेरे लिए मार्ग नहीं खोला, तो इसका अर्थ है— मुझे अभी एक और परीक्षा देनी होगी।” वह आश्वत्थामा की ओर मुड़े। उनकी दृढ़ आँखों में किंचित अभिमान, किंचित चुनौती थी।

परशुराम: “द्रोणपुत्र… तू कहता है कि तू सम्पूर्ण होकर लौटा है। पर क्या तू वास्तव में तैयार है? शब्दों से नहीं—पराक्रम से सिद्ध कर।

आश्वत्थामा ने सिर झुकाया।

आश्वत्थामा: “गुरुदेव, आपकी आज्ञा ही मेरा अस्त्र है।” परशुराम ने भूमि पर पैर पटका— धरती फटी, और एक विशाल वृत्त खुला—मानो पृथ्वी स्वयं रणभूमि बन गई हो।

परशुराम: “मेरे सामने ऐसे खड़ा हो जैसे द्रोण के सामने अर्जुन खड़ा हुआ था। अपनी शक्ति नहीं— अपने संकल्प की परीक्षा दे। यदि तू यह परीक्षा पार करेगा… तभी काल-तिलक अगला द्वार खोलेगा।”

 ऋषि आर्यमंत्र ने दोनों को देखा। उन्हें पता था— यह सिर्फ शक्ति की परीक्षा नहीं। यह आश्वत्थामा की आत्मा की कसौटी थी।

परशुराम ने अपना परशु हवा में उठाया। आकाश गड़गड़ाया। भूमि धधक उठी। हवा में चमकता हुआ एक अदृश्य कर्मचक्र घूमने लगा।

आश्वत्थामा शांत खड़ा रहा। मणि में सुनहरी आभा धीरे-धीरे बढ़ने लगी— जैसे उसे स्वयं पता हो कि यह क्षण उसके पुनर्जन्म का अंतिम चरण है। अचानक—

परशुराम: “द्रोणपुत्र! पहला वार—तू कर!” आकाश थम गया।

आश्वत्थामा शांत अपनी जगह पर खड़े थे।

परशुराम: “द्रोणपुत्र! पहला वार तुझे करना था। मेरा आदेश था—और तू मौन खड़ा है? क्या तुझे अभी भी अपने पूर्ण होने पर संदेह है?”

आश्वत्थामा ने गहरा श्वास लिया और कहा “गुरुदेव… आप मेरे लिए पिता तुल्य हैं मैं चाह कर भी आप पर वार नहीं कर सकता।  मैं पूर्ण इसलिए नहीं हुआ कि पूर्ण होते ही अपने पितातुल्य गुरु पर वार करू। मैं पूर्ण इसलिए हुआ क्योंकि मैंने अपनी बुद्धि, अपने विवेक को क्रोध से मुक्त किया है।”

परशुराम की आँखों में एक क्षण को चेतना कौंधी। पर वह तुरंत उड़ गई— और अग्नि दहक उठी।

परशुराम: “यदि तू पहले वार करने योग्य नहीं— तो मुझे तुझे मजबूर करना होगा!” वह जोरदार गर्जना के साथ आगे बढ़े। धरती फटी— और परशु हवा को चीरते हुए ऐसा उतरा मानो कोई पर्वत गिर पड़ा हो।

आश्वत्थामा ने कोई अस्त्र नहीं उठाया। उसने दोनों हाथ जोड़कर, शरीर को हल्का मोड़कर वही कर दिखाया। जो कभी उसके पिता द्रोण ने अर्जुन को सिखाया था— युद्ध में स्थिरता, न कि उग्रता।

परशु का वार उसके सिर के ठीक पीछे से गुजर गया— आश्वत्थामा ने बस आधा कदम पीछे लिया… और हवा में दौड़ती बिजली उसके सामने एक चिंगारी भर की दूरी पर रुक गई।

परशुराम का चेहरा कठोर हुआ।

परशुराम: “बचना युद्ध नहीं है! युद्ध है—सामना करना!” 

आश्वत्थामा ने शांत स्वर में कहा— 

आश्वत्थामा: “गुरुदेव, मैंने जीवनभर सामना ही किया है। क्रोध का, पाप का, शाप का… अब मैं सीखना चाहता हूँ कि बुद्धि कैसी होती है।” 

परशुराम के भीतर चोट लगी। उनकी आँखों में अचानक वह पुरानी पीड़ा उतर आई— जिसने उन्हें स्वयं ऋषि होते हुए भी पृथ्वी को इक्कीस बार रक्त से रंगने पर मजबूर कर दिया था। उनकी आवाज़ अटल थी—

परशुराम: “तो देख! बुद्धि कैसी होती है!” वे फिर झपटे। इस बार उनका परशु हवा में घूमकर चक्र बन गया— एक अग्नि का मंडल जैसे सूर्य की राख से बना हो। 

आश्वत्थामा जानता था— यह वार बचाना असंभव है। पर उसने वार नहीं रोका। उसने अपनी मणि से निकलती सुनहरी प्रभा को एकत्र किया, और अपने दोनों हाथ आगे बढ़ाए— न तलवार, न धनुष, न कोई अस्त्र… सिर्फ चेतना। परशु उससे टकराया— और अचानक ऐसा लगा जैसे दो युग टकरा गए हों। ध्वनि गूँजी नहीं। धरती गिरी नहीं। आसमान टूटा नहीं।

बल्कि— परशुराम का परशु थम गया। पूर्णतः। जैसे किसी ने समय को रोक दिया हो। और दोनों के बीच एक चमकता हुआ वृत्त उठ गया— शांत, सौम्य, दिव्य। 

ऋषि आर्यमंत्र ने दूर खड़े फुसफुसाकर कहा—

आर्यमंत्र: “यह शक्ति… यह परशुराम से भी परे है। यह द्रोण की बुद्धि और द्रोणपुत्र के तप का संगम है।”

परशुराम ने परशु पीछे खींचा। उनकी सांस भारी थी— पर आँखों में वही आग नहीं थी। अब वहाँ… सम्मान था, गर्व था,  और एक लम्बे समय के बाद, शांति का सूक्ष्म स्पर्श।

परशुराम: “अब मैं समझा। तू वास्तव में पूर्ण हो चुका है। अब तू मेरे शिष्य नहीं— अपने पिता का उत्तराधिकारी है।द्रोण जीवित होते तो आज गर्व करते।”

आश्वत्थामा ने सिर झुकाया। मणि सुनहरी आभा में शांत, स्थिर हो गई। उसी पल— काल-तिलक की हवा चमक उठी। नीला प्रकाश उठता हुआ, आकाश में नए चक्र का संकेत बना।

पहले तो सबने सोचा— यह संकेत अगले चिरंजीवी का होगा। लेकिन नहीं—

वह चक्र आश्वत्थामा की ओर नहीं, परशुराम की ओर खुला। आश्वत्थामा और ऋषि आर्यमंत्र दोनों चौंक उठे। काल-तिलक का द्वार आमतौर पर बुलाता था… प्रवेश नहीं लेता था।

लेकिन इस बार वह खुला— और परशुराम के पाँवों तक स्वयं झुक गया। वह प्रकाश उनके चारों ओर लिपट गया।
मानो समय का कोई पुराना ऋण उन्हें अंदर बुला रहा हो।

ऋषि आर्यमंत्र (आशंकित): “परशुराम-जी… यह मार्ग आपके लिए नहीं था। यह असामान्य है… कुछ तो बदल गया है!” परशुराम, जो अभी तक शांत थे, अचानक गहरे विचार में डूब गए। उनकी आँखें स्थिर थीं— मानो उनके सामने कोई अदृश्य पुकार खड़ी हो।

परशुराम (भारी स्वर में): “मैं समझ रहा हूँ। काल-तिलक मुझे वहीं ले जाना चाहता है, जहाँ मेरे क्रोध ने संसार की दिशा बदल दी थी।” 

आश्वत्थामा आगे बढ़ा— आश्वत्थामा: “गुरुदेव, यह यात्रा अकेले आप क्यों…?” परशुराम ने हाथ उठाकर उसे रोका। उनकी आँखों में पहली बार एक दुर्लभ विनम्रता थी।

परशुराम: “द्रोणपुत्र… कुछ ऋण ऐसे होते हैं जिन्हें शिष्य भी नहीं चुका सकते।” द्वार की रोशनी तेज हो गई। और अगले ही क्षण— काल-तिलक का द्वार परशुराम को अपने भीतर समेटने लगा। काल-तिलक की भयानक नीली आँधी परशुराम को अपने भीतर खींचती चली गई। दृष्टि धुंधली हुई… और पुनः खुली तो संसार रक्त-धूल के रंग में डूबा हुआ था।

अर्जुन और कर्ण का अंतिम युद्ध। बाणों की भीषण वर्षा, रथों का टकराव, और देवताओं तक को विचलित कर देने वाला संघर्ष। वहाँ सिर्फ परशुराम केवल दर्शक थे। वे न दिखाई दे रहे थे, न सुने जा सकते थे। वे यहाँ सिर्फ “साक्षी” थे— समय के आदेश से।

कुछ क्षण युद्ध थमा। अर्जुन तेज़ साँस लेते हुए कृष्ण की ओर मुड़ा— “माधव! क्या आपने देखा? मेरे प्रत्येक बाण के वार से कर्ण का रथ दस पग पीछे खिसकता है… और उसके बाण से मेरा रथ सिर्फ दो पग अब आप स्वयं ही बताओ कौन सबसे बड़ा धनुर्धर है ?” उसके स्वर में गौरव था।

कृष्ण ने उसकी ओर देखा— मुस्कुराए नहीं, बस शांत रहे। उनका मौन ही अर्जुन का उत्तर था।

परशुराम ने यह देखा— उनके भीतर जैसे कोई पुराना घाव हिल गया। उन्होंने समझ लिया कि यह दृश्य उन्हें कुछ दिखाने के लिए है।

युद्ध पुनः आरंभ हुआ। कर्ण का शरीर धूल और रक्त में सराबोर, पर उसकी दृष्टि अभी भी धधक रही थी। उसने जोर से मंत्रोच्चार किया— “शक्ति अस्त्र!” पर कोई प्रकाश नहीं। “वैश्‍वनर!” हवा मौन रही। कर्ण ने आश्चर्य से अपने हाथों को देखा। कुछ क्षणों के भीतर ही वह समझ गया— उसके परशुराम का शाप अब उसके सामने खड़ा है। उसी क्षण उसका रथ कीचड़ में गहराई तक धँस गया। घोड़ों ने हिनहिनाते हुए संघर्ष किया पर रथ एक इंच भी न हिला। कर्ण जमीन पर उतरा और दोनों हाथों से रथ का पहिया निकालने लगा।

परशुराम दूर खड़े थे— बोल नहीं सकते थे, कर्म नहीं कर सकते थे, बस देख सकते थे। और वे यह देख रहे थे कि उनके ही वचन उनके प्रिय शिष्य का जीवन छीन रहे हैं।

इधर श्री कृष्ण ने अर्जुन को वार करने का निर्देश दिया, अर्जुन ने अवसर देखा, पर उसका मन झिझक रहा था। “माधव… यह अधर्म है। निहत्थे पर प्रहार… यह क्षत्रिय धर्म नहीं।”

कृष्ण की आँखें गंभीर हुईं— “पार्थ, अधर्म तब हुआ था। जब अभिमन्यु को बारह योद्धाओं ने घेरकर मारा था।” “आज न्याय का समय है।”

अर्जुन चुप हो गया। उसने गांडीव उठाया… और अंजलिका अस्त्र छोड़ा। अस्त्र ने आकाश को तप्त सोने जैसा कर दिया— और सीधे सूर्यपुत्र कर्ण को भेद गया। कर्ण भूमि पर गिरा। धूल, रक्त और वीरता की अंतिम सुगंध उसके साथ थी।

alt="काल-तिलक का रहस्य अध्याय 01 – परशुराम, अश्वत्थामा और दिव्य यंत्र की रहस्यमयी कहानी"
युद्ध का शोर अचानक मद्धम हो गया। जैसे किसी ने समय को धीमा कर दिया हो। कर्ण अब अंतिम प्राणों पर था।और तभी— परशुराम के सामने उसकी आत्म-चेतना प्रकट हुई। कर्ण ने अपनी धुंधली दृष्टि ऊपर उठाई— और पहली बार गुरु परशुराम को देखने लगा। वे संसार के लिए अदृश्य थे, पर मृत्यु के निकट आत्माएँ काल के पार भी देखने की क्षमता रखती हैं। कर्ण ने मुस्कुराने का प्रयास किया और दोनों हाथों को जोर कर प्रणाम किया और कहा "गुरुवर आपके दर्शन मात्र से मुझे मुक्ति मिल जाएगी। मुझे लगा था शायद अब आपका आशीर्वाद मुझे कभी प्राप्त नहीं होगा। 

परशुराम उसके निकट झुके, और कर्ण को अपनी बाँहों मे भर लिया उनकी आँखों में पीड़ा थी अश्रु निकाल रहे थे।परशुराम (कंपित स्वर में): “वत्स… मुझे क्षमा करो। मैंने अज्ञानवश, क्रोधवश तुझे ऐसा शाप दे दिया जिसे तू आज भोग रहा है। तू मेरे सर्वश्रेष्ठ शिष्यों में से था… और मैं… तेरे विनाश का कारण बन गया…” उनके शब्द टूटते चले गए। आँखों से आँसू बह चले। 

कर्ण ने धीरे से सिर हिलाया— उसके चेहरे पर शांति उतर आई थी।

कर्ण: “गुरुदेव… मुझे आपसे कभी कोई क्लेश नहीं रहा। आपने जो किया, धर्मानुसार किया। शिष्य ने गुरु से सत्य छुपाया— तो दंड तो मिलेगा ही।” परशुराम ने कर्ण का हाथ पकड़ लिया— उनके आँसू कर्ण की हथेली पर गिर रहे थे।

परशुराम: “नहीं वत्स… मेरी दृष्टि उस दिन धूमिल थी। मेरी भ्रांति ने तुझे मृत्यु दी।” कर्ण ने मुस्कुराते हुए कहा—

“गुरुदेव, आज मेरा प्राण त्यागना ही मेरी गुरुदक्षिणा है। अगर मेरे जीवन का अन्त आपके शाप का फल है— तो उसे मैं आदर सहित स्वीकार करता हूँ।”

परशुराम जैसे पत्थर बन गए। कर्ण के शब्द उनके हृदय पर हथौड़े की तरह गिर रहे थे।

कर्ण: “आपके चरणों में मेरा अंतिम प्रणाम… गुरुदेव।” और अगले ही क्षण— कर्ण की आँखें शांत हो गईं। उसकी आत्मा काल-प्रवाह में विलीन हो गई। परशुराम फूट पड़े। सदियों बाद उनकी आँखों से ऐसे आँसू निकले थे।

आकाश में नीला काल-तिलक खुला। परशुराम आगे बढ़े… लेकिन उनके कदम पहले से भारी थे। जैसे ही वे उस द्वार से बाहर निकले— वे अपने वर्तमान समय में वापस आ गए। परंतु इस बार— उनके हाथ में उनका दिव्य फरसा चमक रहा था। उनका शरीर साधारण ऋषि जैसा नहीं— बल्कि दिव्य योद्धा जैसा तेजस्वी हो उठा था।

उनकी आँखों में शाप का पश्चाताप नहीं, बल्कि न्याय और ज्ञान का नया प्रकाश था। कर्ण के अंतिम शब्द उनकी आत्मा में गूंज रहे थे— “मेरी मृत्यु ही मेरी गुरुदक्षिणा है।”

परशुराम के भीतर एक नई ऊर्जा जन्म ले चुकी थी। उनकी यात्रा अब और भी गहरी होने वाली थी…

अब परशुराम के बाद काल-तिलक किस चिरंजीवी को ढूँढेगा। और आश्वत्थामा और परशुराम अब किस नए सफर पर निकालने वाले है। मिलते है अगले अध्याय मे। 

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