Ads

टेन्जिंग नोर्बू की डायरी — गुमनाम पन्ने

टेन्जिंग नोर्बू की डायरी — गुमनाम पन्ने


"कई पर्वत ऊँचे होते हैं… लेकिन कुछ पर्वत मौन में बोलते हैं। ये कहानी है एक ऐसे साधक की, जिसने उस पर्वत की चोटी को नहीं… उसकी आत्मा को छू लिया।

साल था 1947… नाम था टेन्जिंग नोर्बू… और सामने था कैलाश — वो रहस्यमयी शिखर जिसे सदियाँ केवल निहारती रहीं। हर कदम पर धड़कनों की गूँज थी, हर मोड़ पर समय रुक जाता था, और हर रात… कोई अदृश्य शक्ति उसे परखती थी। ये कोई यात्रा नहीं थी — ये एक निर्णय था। प्रस्तुत है — टेन्जिंग नोर्बू की रहस्यमयी कैलाश यात्रा — एक डायरी जो शायद लौटकर कभी दुनिया को मिलनी ही नहीं थी।


कहते हैं कि कैलाश पर्वत पर आज तक कोई नहीं चढ़ा।

कहते हैं… क्योंकि जिसने भी कोशिश की, वो या तो लौटा नहीं — या फिर कभी वैसा नहीं रहा जैसा गया था।

पर आज से कुछ महीने पहले, मानसरोवर यात्रा के दौरान, मुझे एक पुरानी डायरी मिली — एक तिब्बती साधु द्वारा दी गई।
उस डायरी में लिखा था:

“मैं वापस नहीं आ पाऊँगा। लेकिन मैंने देख लिया है… देवताओं का सिंहासन। — टेन्जिंग नोर्बू | 1947”

उस दिन से, मेरी जिंदगी बदल गई।

नमस्ते, मेरा नाम अभिषेक है। मैं एक स्वतंत्र खोजी पत्रकार हूँ और रहस्यमयी यात्राओं पर वीडियो डॉक्यूमेंट्री बनाता हूँ।

2025 में, मैं मानसरोवर झील की यात्रा पर था। वहाँ एक तिब्बती साधु ने मुझे एक संदूक सौंपा — उसमें एक पुरानी, धुंधली डायरी थी, एक अधजली चिट्ठी और एक फटी हुई काली-सफेद फोटो। चिट्ठी में सिर्फ इतना लिखा था:

        "कैलाश पर चढ़ाई कोई उपलब्धि नहीं... ये एक परीक्षा है। और मैं शायद असफल हो गया।" चिट्ठी लिखने             वाले  का नाम था: टेन्जिंग नोर्बू

मैंने खोज शुरू की।    

टेन्जिंग नोर्बू का नाम न तो किसी पर्वतारोहण रिकॉर्ड में था, न ही ब्रिटिश इंडिया की पर्वत चढ़ाई रिपोर्ट्स में। लेकिन कुछ स्थानीय लोग उसे "पहला पागल" कहते थे — जिसने कैलाश पर चढ़ने की कोशिश की थी।

1947 में, जब भारत आज़ाद हुआ, उसी साल टेन्जिंग नोर्बू ने एक गुप्त अभियान शुरू किया। कुछ तिब्बती दस्तावेजों में उसका नाम मिला — और चीनी सेना की पुरानी रिपोर्ट में एक लाइन:

“Subject Norbu attempted unauthorized ascent of Mount Kailash. Disappeared near the mid-point. No remains found.”

टेन्जिंग नोर्बू की डायरी में दर्ज थे उसके आखिरी शब्द:

“मैं अब चोटी के पास हूँ। यहाँ हर कदम पर हवा भारी होती जाती है, और समय… धीमा हो चुका है।
मेरी घड़ी तीन दिन से एक ही समय पर अटकी है — और मुझे लगता है कि मेरी आत्मा कहीं फँस गई है।”

“मैंने चोटी देख ली है। पर उस तक पहुँचना… किसी और दुनिया में दाखिल होने जैसा है।” 

मैं नेपाल और ल्हासा की ओर गया। वहाँ एक 90 वर्षीय बूढ़े लामाओं से मिला। वो बोला: “नोर्बू वापस नहीं आया… और हमें लगा वो मर गया। लेकिन कुछ रातों बाद, हमने उसे चोटी के पास खड़ा देखा… हवा में… बिना किसी छाया के।”

एक पुराना चित्र मिला — जो सेटेलाइट से खींचा गया एक धुंधला फोटो। जिसमे एक परछाई, आधी चढ़ाई पर, लेकिन उसकी छाया नीचे नहीं… ऊपर की ओर जा रही थी। 

कैलाश एकमात्र ऐसा पर्वत है जहाँ:

  • कोई बर्फ़ गिरती नहीं, फिर भी हमेशा सफेद रहता है।

  • कंपास काम नहीं करता।

  • पश्चिम से पूर्व की दिशा में घूमता है, जबकि सारे पर्वत दक्षिण से उत्तर की ओर।

कई वैज्ञानिकों ने इसे पृथ्वी का ऊर्जा केंद्र कहा है। और कई साधु इसे देवताओं का सिंहासन।  नोर्बू की डायरी में लिखा था:

“मैंने शून्यता देखी है। वहाँ प्रकाश था… और वह मुझसे बात कर रहा था।”

मानसरोवर के किनारे बैठकर मैंने डायरी का अंतिम पृष्ठ पढ़ा:

“अगर कोई ये पन्ना पढ़ रहा है, तो समझ लो — तुम भी चुने गए हो। लेकिन सावधान रहना… चोटी सिर्फ उसी को बुलाती है, जिसे खुद वो परखना चाहती है।”

मैंने सिर उठाकर कैलाश पर्वत की ओर देखा।

सूरज ढल चुका था। कैलाश की चोटी पर एक आकृति थी… ठीक वैसी जैसी उस फटी फोटो में थी। और फिर… वो गायब हो गई। 

टेन्जिंग नोर्बू शायद मर नहीं गया… शायद वो किसी अन्य आयाम में चला गया, या शायद… वो अब भी वहीं है। चोटी पर। देवताओं के बीच। मैंने नोर्बू की डायरी को एक एक कर पढ़ना शुरू किया। 

5 जून 1947 — ताकलाकोट (Taklakot), नेपाल सीमा

आज सुबह हमने ताकलाकोट से यात्रा शुरू की। ऊँचाई पहले ही 13,000 फीट है। सांस लेना भारी लगता है। मेरे साथ केवल एक याक और एक भिक्षु है जो रास्ता दिखा रहा है। उन्होंने कहा, "अगर तुम लौटना चाहो तो अभी लौट जाओ… कैलाश रास्ता नहीं, फैसला है।"

6 जून 1947 — लांछु घाटी (Lanchu Valley)

आज सुबह भिक्षु ने सूरज उगने से पहले ही जगा दिया। हवा में बर्फ़ की महक थी, लेकिन बादल एकदम साफ़।
हम लांछु घाटी की ओर बढ़े — यहाँ से आगे कोई सीधा रास्ता नहीं है, सिर्फ़ चट्टानों की भूलभुलैया है।

रास्ते में एक पुराना पत्थर मिला, जिस पर बौद्ध मंत्र खुदे थे: "ॐ मणि पद्मे हूं"

भिक्षु ने कहा, “हर पत्थर बोलता है… अगर तुम सुन सको।” अचानक, घाटी में नीचे से किसी ने सीटी जैसी आवाज़ दी। हमने देखा नहीं — लेकिन याक डर के मारे काँप रहा था। शायद हवा थी… या कुछ और।

7 जून 1947 — दरचेन (Darchen)

ऊँचाई: 15,000 फीट

हम आज दरचेन पहुँचे — कैलाश की पवित्र परिक्रमा का पहला पड़ाव। यहाँ हवा पतली है, लेकिन उससे ज़्यादा अजीब है… यहाँ की खामोशी। भिक्षु ने कहा, “अब से हर दिशा में देवताओं की निगाह है। कुछ बोलने से पहले मन को चुप कर दो।”

रात को जब हम टेंट में थे, मैंने बाहर किसी के कदमों की आवाज़ सुनी — ठीक-ठीक-ठाक… रुक… फिर चालू। मैंने टॉर्च जलाकर देखा — बाहर कोई नहीं था। लेकिन टेंट के पास की बर्फ़ में किसी के नंगे पैरों के निशान थे। और वो भी उल्टी दिशा में… जैसे कोई पीछे की ओर चल रहा हो।

भिक्षु ने कुछ नहीं कहा। बस अपना जप तेज़ कर दिया और आँखें बंद कर लीं।

8 जून 1947 — यम द्वार (Yama Dwar)

ऊँचाई: 15,750 फीट

आज हम दरचेन से आगे निकले — और पहुँचे यम द्वार पर। नाम सुनते ही शरीर में सिहरन दौड़ गई।

भिक्षु ने कहा, “यहाँ से शरीर पीछे रह जाता है… और आत्मा अकेली यात्रा करती है।” मैंने देखा — हवा यहाँ स्थिर थी, लेकिन घंटों की तरह बजती थी। जैसे किसी अदृश्य प्राणी की उपस्थिति हो। हमारे सामने एक पत्थर का द्वार था — बिना किसी दरवाज़े के। लेकिन जैसे ही हमने उसके बीच से कदम रखा, सब कुछ बदल गया। पल भर में, मुझे ज़मीन डोलती हुई लगी। मेरे कानों में किसी स्त्री की धीमी फुसफुसाहट आई —

"नोर्बू .... तुम वापस आ जाओ..."

मैंने पीछे मुड़कर देखा — भिक्षु वही था, लेकिन उसकी परछाईं… नहीं थी। कुछ ही क्षणों बाद, मेरे बाएं पैर का तलवा बर्फ़ में धँसा — और मुझे ऐसा लगा जैसे किसी ने मुझे नीचे खींचा। भिक्षु ने एक मंत्र बुदबुदाया और मैं बाहर निकल पाया। उसने धीरे से कहा —

“द्वार पार करने वालों में से हर कोई वापस नहीं आता। और जो लौटता है… वो कभी वही नहीं रहता।”

रात हम यम द्वार से कुछ दूरी पर रुके। टेंट के बाहर किसी ने फिर से सीटी बजाई। पर इस बार… उसकी आवाज़ मेरे अंदर गूंजने लगी

9 जून 1947 — सिलुंग ग्लेशियर (Silung Glacier)

ऊँचाई: 17,000 फीट

यम द्वार पार करते ही सब कुछ बदल गया। अब हमारे चारों ओर सिर्फ नीली सफेदी है — बर्फ़, धुंध, और चुप्पी।हमने सिलुंग ग्लेशियर की चढ़ाई शुरू की। हर कदम भारी लगता है… जैसे ज़मीन हमें ऊपर नहीं जाने देना चाहती। साढ़े तीन घंटे की चढ़ाई के बाद भिक्षु ने कहा, “यह ग्लेशियर समय को रोक देता है… यहाँ घड़ी नहीं, आत्मा थमती है।”

मैंने अपनी जेब से घड़ी निकाली — सुइयाँ 9:14 पर अटक गई थीं। और वो वक़्त वही था… जब मैं यम द्वार से गुज़रा था। भारी बर्फ़ में कुछ काले पत्थर दिखे। भिक्षु ने कहा, ये प्राचीन तिब्बती साधुओं की समाधियाँ हैं। वे कैलाश तक पहुँचना चाहते थे… पर यहीं थम गए।

रात होते-होते बर्फ़ की तहें और घनी हो गईं। टेंट के अंदर भिक्षु मंत्र पढ़ रहा था, और मैं बाहर अजीब फुसफुसाहटें सुन रहा था। कभी अपनी माँ की आवाज़… कभी बचपन की हँसी… कभी किसी अनजान स्त्री का रुदन। मैं बाहर निकला तो दूर बर्फ़ में एक आकृति दिखी — काले वस्त्र, सिर झुका हुआ, और… वो मेरी ओर देख रही थी।

मैंने टॉर्च जलाई — और आकृति गायब

भिक्षु बोला: “यात्रा की अगली सीढ़ी पर, यादें सबसे पहले हमला करती हैं… अगर तुम भूलने लगे, तो समझो तुम आगे बढ़ रहे हो।”

10 जून 1947 — राक्षस ताल की छाया (Shadow of Rakshas Tal)

ऊँचाई: 16,500 फीट

आज सुबह हम कैलाश के पश्चिमी हिस्से से गुज़रे और पहुँचे राक्षस ताल के पास। कहते हैं ये झील रावण ने तपस्या के लिए बनाई थी — लेकिन इसके पानी में आज भी कुछ जाग्रत है। झील शांत थी, मगर हवा में एक अजीब कंपन था — जैसे कोई अदृश्य बाँसुरी बज रही हो। भिक्षु ने दूर झील की छाया की ओर इशारा किया और कहा,

“परछाइयाँ यहाँ हमेशा तुम्हारी नहीं होतीं…”

मैंने झील के किनारे बैठकर पानी में झाँका। पर जो चेहरा मुझे दिखा — वो मेरा नहीं था। वो चेहरा बूढ़ा था, आँखें लाल, और होंठ फटे हुए। मैंने झपक कर देखा — पर वो चेहरा अब भी वही था, हिलता नहीं… देखता रहा।

मैंने झील से नजर हटाई और वापस मुड़ा — तो देखा, भिक्षु कहीं नहीं था।

मैंने चारों ओर देखा — बर्फ़ पर कोई पैरों के निशान नहीं। फिर दूर एक काला कपड़ा उड़ता दिखा, जैसे किसी ने बस अभी-अभी वहाँ से छलाँग लगाई हो। तभी मेरी पीठ पर किसी ने धीरे से हाथ रखा — मैं मुड़ा, पर वहाँ कोई नहीं था। भिक्षु कुछ मिनट बाद लौटा, जैसे कुछ हुआ ही न हो। उसने बस एक बात कही:

"राक्षस ताल आत्मा की परीक्षा नहीं लेता, वो सिर्फ़ तुम्हें वो दिखाता है… जो तुमने अब तक छिपा रखा है।"

11 जून 1947 — कैलाश का उत्तर मुख (North Face of Kailash)

ऊँचाई: 18,600 फीट

आज पहली किरण पड़ते-ही हमने राक्षस ताल को पीछे छोड़ा। हवा सुई की तरह चुभ रही थी, पर मन में एक अजीब-सा खिंचाव था — जैसे कोई रस्सी हमें खींच रही हो।

कुछ ही घंटों में हम उत्तर मुख की तलहटी पर थे। यह दीवार काली-सफेद धारियों वाली है, मानो किसी विशाल ग्रंथ का पन्ना… जिस पर हिम अक्षर खुद उभर आए हों। भिक्षु ने चेतावनी दी, “यहाँ पत्थर जीवित हैं। जिन बातों को सुनना नहीं चाहिए, उन्हें दोहराना मत।” मैंने घड़ी देखी — सूइयाँ फिर से रुक चुकी थीं, इस बार ठीक 11 बजकर 11 मिनट पर। कम्पास को निकाला तो सुई गोल-गोल घूम रही थी, बिना किसी दिशा के।

चढ़ाई के दौरान हमें एक गहरी दरार मिली, भीतर से लगातार धौंकनी जैसी धड़कन सुनाई दे रही थी। मैंने टॉर्च भीतर डाली — तो पत्थर की दीवारों पर कहीं-कहीं लाल चमकती नसें दिखीं, जैसे पहाड़ में रक्त बह रहा हो।

अचानक पीछे से किसी ने मेरा नाम पुकारा — “नोर्बू…” मैंने पलटकर देखा, भिक्षु कई क़दम आगे था। आवाज़ वही पत्थरों के भीतर से आई थी। आगे एक प्राचीन पत्थर-स्तंभ मिला। उस पर ताज़ा-सी नमी थी और लिपि बदलती नज़र आ रही थी — पहले तिब्बती, फिर संस्कृत, फिर… वो भाषा जिसे मैं पढ़ नहीं सका, पर अर्थ सीधे दिमाग़ में गूँज गया:

“चोटी तक पहुँचना मृत्यु नहीं…मृत्यु से पहले का मौन है।”

साँझ होते-होते आकाश पर काले बादल इकठ्ठा हुए मगर बर्फ़ नहीं गिरी; इसके बजाय हवा में सोने के कण तैरते दिखे — क्षण-भर को लगा, जैसे ऊपर कोई अदृश्य सीढ़ी बन रही हो। भिक्षु ने अपना खुरदुरा हाथ मेरे कंधे पर रखा, “कल आख़िरी जाँच है। अगर पर्वत ने स्वीकार कर लिया, तो तुम लौट भी आओगे।” रात टेंट के बाहर पत्थरों पर हल्की-हल्की थपथपाहट होती रही — जैसे कोई अनदेखा पथिक हमारे पाँव-चिन्ह नाप रहा हो। मैंने डायरी समेटी, क़लम नीचे रखी… और महसूस किया कि मेरा ही साया, टेंट की दीवार पर मुझसे कुछ सेकन्ड पीछे चल रहा है। 

12 जून 1947 — अंतिम बिंदु (The Edge)

ऊँचाई: 19,500 फीट

आज सुबह सूरज नहीं उगा। आकाश काला था — इतना काला कि उसमें अपनी आँखें डूबती सी लगीं। भिक्षु ने कहा, “आज पर्वत निर्णय सुनाएगा।”

हमने चढ़ाई शुरू की। चारों ओर बर्फ़ थी, लेकिन हवा में गरमाहट थी — ऐसी गरमाहट, जैसी किसी बंद कमरे में साँसें घुटने लगें। कई घंटों के बाद हम एक चट्टान के पास पहुँचे, जिसे भिक्षु ने "The Edge" कहा। वहाँ से आगे कोई रास्ता नहीं था। बस एक सीधी गहराई, और सामने… कैलाश का गुप्त मुख, जिसे केवल वही देख पाता है जो मृत्यु को छूकर लौटा हो।

मैंने वहाँ ध्यान लगाया, और कुछ क्षणों बाद… मुझे अपने भीतर की हर आवाज़ बाहर सुनाई देने लगी।

मेरी माँ की पुकार, मेरे बचपन की खिलखिलाहट, और मेरे मृत पिता की एक गूंजती हुई फुसफुसाहट — “तुम अकेले नहीं हो… कभी थे ही नहीं…”

आँखें खोलीं तो देखा — भिक्षु अब वहाँ नहीं था। वो एक दूर खड़े शिलाखंड पर बैठा था, मगर उसके चारों ओर
चमकती परछाइयाँ थीं — एक महिला, एक वृद्ध पुरुष, और एक अजीब आकृति जिसका चेहरा… ठीक मेरे जैसा था। मैंने खड़ा होना चाहा, पर पैर बर्फ़ में गड़ गए। उस वक्त मेरे भीतर एक सवाल गूंजा —

“क्या तुम सच में ऊपर पहुँचना चाहते हो, या सिर्फ़ खुद से भाग रहे हो?”

अचानक ज़मीन थरथराई। आकाश से एक सीधी, नीली बिजली नीचे उतरी — और कैलाश का मुख खुल गया।

वहाँ कोई मूर्ति नहीं थी… कोई पत्थर नहीं… बस एक अदृश्य सीढ़ी थी, जो ऊपर नहीं, भीतर उतरती थी। और तभी, मैंने देखा — भिक्षु अब मेरी जगह खड़ा था, और मैं उसकी जगह… जैसे हमने स्थान बदल लिए हों। मुझे कुछ समझ नहीं आया। उसने मेरी ओर देखा और कहा:

“अब तुम पहरेदार हो। जो ऊपर चढ़ा है, वो नीचे की ओर मार्गदर्शक बनता है। कोई और आएगा… और वो भी खोएगा।”

और उसी क्षण, मैंने देखा — मेरे पीछे एक युवा तीर्थयात्री चढ़ाई करता आ रहा था। घबराया हुआ, थका हुआ… और उसके कदमों के निशान बिल्कुल उन्हीं जगहों पर पड़ रहे थे जहाँ कभी मेरे थे।

मैं टेन्जिंग नोर्बू नहीं रहा। अब मैं वो हूँ, जो सबको मार्ग दिखाता है… और जो अंत में, खुद को भूल जाता है।

                                                       *****🙏🙏🙏*****

Tags

एक टिप्पणी भेजें

0 टिप्पणियाँ
* Please Don't Spam Here. All the Comments are Reviewed by Admin.